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सिविल कानून

पत्नी के साथ गुलाम जैसा बर्ताव नहीं किया जा सकता

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 26-Oct-2023

कल्याणी बाई बनाम तेजनाथ 

एक पत्नी को गुलाम नहीं माना जाना चाहिये या उसे अपने पति द्वारा निर्धारित शर्तों के अधीन रहने के लिये मज़बूर नहीं किया जाना चाहिये। 

छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय 

स्रोत: छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय (HC) ने कल्याणी बाई बनाम तेजनाथ के मामले में माना है कि पत्नी को गुलाम नहीं माना जाना चाहिये, या उसे अपने पति द्वारा निर्धारित शर्तों के अधीन रहने के लिये मज़बूर नहीं किया जाना चाहिये। 

कल्याणी बाई बनाम तेजनाथ मामले की पृष्ठभूमि  

  • दोनों पक्षकारों का विवाह वर्ष 2008 में हुआ और इस दंपत्ति को वर्ष 2009 में एक बच्ची हुई। 
  • गौना करने के बाद दंपत्ति लगभग 6 माह तक ग्राम बरदुली स्थित वैवाहिक घर में रहे। 
  • पति का आरोप है कि शुरू में पत्नी को यह विवाह पसंद नहीं आया क्योंकि यह विवाह ग्रामीण इलाके में हुआ था, इसके बाद वह बी. एड. की पढ़ाई पूरी करने के लिये रायपुर चली गई। 
  • कोर्स पूरा होने के बाद, जब पति उसे वापस लेने के लिये गया तो पत्नी ने अपने पति के साथ जाने से इंकार कर दिया और कहा कि वह अपने मायके में रहेगी। 
  • इसके बाद पति ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) के तहत क्रूरता और परित्याग के आधार पर तलाक की मांग की और कुटुंब न्यायालय ने इसकी अनुमति दे दी। 
  • अपील में पत्नी ने तर्क दिया कि वह सदैव पति के साथ रहने को तैयार थी, लेकिन वह उसे कभी भी अपने साथ नहीं रखना चाहता था और वही चाहता था कि वह ग्राम बरदुली में अलग से रहे। 
  • उसने यह भी कहा कि वह शुरू से ही पति के गाँव में रहने की मांग का विरोध करती थी। 
  • पति ने कहा कि उसकी पत्नी को झूठे आरोप लगाने की आदत है और उसने भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498-a के तहत अपराध के लिये उसके खिलाफ पुलिस शिकायत भी की थी। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ  

  • न्यायाधीश गौतम भादुड़ी और दीपक कुमार तिवारी ने माना कि यह पति ही था जो इस बात पर ज़ोर दे रहा था कि उसकी पत्नी को पति के गाँव में रहना चाहिये और उसने साथ रहने की उसकी मांग को उचित महत्त्व नहीं दिया। 
  • वैवाहिक घर के भीतर पत्नी की स्वायत्तता और गरिमा के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए, उच्च न्यायालय ने पति द्वारा अपनी पत्नी के खिलाफ की गई परित्याग और क्रूरता की दलील को खारिज़ कर दिया। 

परित्याग  

  • परित्याग से तात्पर्य किसी उचित कारण के बिना जीवनसाथी की कंपनी से हटने या वैवाहिक दायित्वों से पीछे हटने के कार्य से है। इसके लिये निम्नलिखित पूर्वावश्यकताएँ हैं: 
    • एक पति या पत्नी के दूसरे से अलग होने का तथ्य। 
    • एनिमस डेसेरेंडी, यानी, अभित्यजन का आशय का अर्थ स्थायी रूप से छोड़ने के आशय से है। 
    • परित्यक्त जीवनसाथी परित्याग के लिये सहमत नहीं होना चाहिये। 
    • परित्याग उचित कारण के बिना होना चाहिये। 
    • कम-से-कम दो वर्ष तक यही स्थिति बनी रही हो। 
    • परित्याग का प्रावधान हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 13 (1) (i-b) के तहत प्रदान किया गया है। 
      • विवाह-विच्छेद-(1) कोई भी विवाह, वह इस अधिनियम के प्रारंभ के चाहे पूर्व अनुष्ठापित हुआ हो चाहे पश्चात्, पति अथवा पत्नी द्वारा उपस्थापित अर्जी पर विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा इस आधार पर विघटित किया जा सकेगा कि- 

(I) दूसरे पक्षकार ने विवाह के अनुष्ठान के पश्चात् अपने पति या अपनी पत्नी से भिन्न किसी व्यक्ति के साथ स्वेच्छया मैथुन किया है; या  

(क) दूसरे पक्षकार ने विवाह के अनुष्ठान के पश्चात् अर्जीदार के साथ क्रूरता का व्यवहार किया है; या 

(ख) दूसरे पक्षकार ने अर्जी के पेश किये जाने के अव्यवहित पूर्व कम-से-कम दो वर्ष की निरंतर कालावधि पर अर्जीदार के अभित्यक्त रखा है; या 

(ib) ने याचिका की प्रस्तुति से तुरंत पहले कम-से-कम दो वर्ष की निरंतर अवधि के लिये याचिकाकर्त्ता को छोड़ दिया है। 

  • बिपिन चंद्रा बनाम प्रभावती (1957) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया कि जहाँ पत्नी बिना किसी कारण के वैवाहिक घर छोड़ देती है, उसे परित्यक्त नहीं माना जायेगा, यदि उसने बाद में लौटने की इच्छा जताई हो, लेकिन उसे ऐसा करने से पति द्वारा जबरन रोक दिया गया हो।